भारत में डिजिटल पेमेंट्स का उभार: UPI की कहानी
दुनिया में कोई भी देश महीने भर में उतने रिटेल डिजिटल ट्रांजैक्शन नहीं करता, जितने भारत करता है—और उसकी रीढ़ है UPI। 2016 के बाद शुरू हुई इस यात्रा ने 2023 में 10 अरब मासिक लेनदेन का आंकड़ा पार किया। 2024 तक यह सिस्टम सिर्फ पैसे भेजने का टूल नहीं रहा, बल्कि बिल, टिकट, टैक्स, माइक्रोपेमेंट और अंतरराष्ट्रीय भुगतान तक फैल चुका है।
ये उछाल यूं ही नहीं आया। सस्ता मोबाइल डेटा, आधार-आधारित KYC, जन-धन खाते, QR कोड का सस्ता ढांचा और शून्य या बेहद कम मर्चेंट डिस्काउंट रेट वाले मॉडल ने छोटे दुकानदार तक का गणित बदल दिया। जहां पॉइंट-ऑफ-सेल मशीनें पहले लागत बढ़ाती थीं, वहीं स्टैटिक QR ने कोई मेंटेनेंस नहीं, कोई रेंट नहीं—बस स्कैन और पे।
2024 में UPI की दिशा और बदली। ‘क्रेडिट ऑन UPI’ से बैंक अब छोटे-छोटे टिकट साइज की क्रेडिट लाइन उपलब्ध करा रहे हैं, जहां ग्राहक क्रेडिट लिमिट से सीधे QR स्कैन कर भुगतान कर सकता है। ‘UPI Lite’ ने बिना पिन के ऑफलाइन जैसे अनुभव के साथ छोटे लेनदेन तेज किए, और Tap & Pay फीचर ने NFC वाले फोन में “टैप” से पेमेंट संभव बनाया।
सीमा पार भी तस्वीर बदल रही है। सिंगापुर के PayNow के साथ रीयल-टाइम रेमिटेंस कनेक्ट हुआ, खाड़ी देशों में चुनिंदा जगहों पर भारतीय QR की स्वीकार्यता बढ़ी, और 2024 में श्रीलंका व मॉरीशस में भारतीय QR-आधारित भुगतान की शुरुआत ने टूरिस्ट और प्रवासी दोनों के लिए आसान रास्ता खोला। धीरे-धीरे यह नेटवर्किंग भारत के बाहर भी रोजमर्रा के भुगतान में जगह बना रही है।
इकोनॉमिक्स पर भी नज़र डालें। शून्य या बहुत कम MDR ने अपनाने की रफ्तार बढ़ाई, पर इससे पेमेंट कंपनियों के राजस्व मॉडल पर दबाव आया। इसलिए अगले दौर का खेल वैल्यू-एडेड सर्विसेज है—फास्ट सेटलमेंट, साउंडबॉक्स, एनालिटिक्स, रीकंसिलिएशन, इंश्योरेंस-बंडल और छोटे कारोबारियों के लिए कार्यशील पूंजी की पेशकश। क्रेडिट कार्ड ऑन UPI और प्रीपेड इंस्ट्रूमेंट्स पर लगने वाले इंटरचेंज/फीस से भी कुछ राहत मिल रही है, पर संतुलन की तलाश जारी है।
बैंकों के लिए UPI दोधारी तलवार है—ग्राहक जुड़ाव और कम लागत, लेकिन नेट इंटरेस्ट आय से इतर आय सीमित। इसलिए कई बैंक अब ‘क्रेडिट ऑन UPI’, EMI विकल्प, और व्यापारी सेवाओं के जरिए फीस-आधारित आय बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। फिनटेक कंपनियां ग्राहकों के अनुभव को तेज, साफ और भरोसेमंद बनाकर बाज़ार में बढ़त लेने की होड़ में हैं।
और सुरक्षा? फ्रॉड का खतरा सबसे बड़ा दर्द है। सोशल इंजीनियरिंग, स्क्रीन-शेयरिंग ऐप, कलेक्ट रिक्वेस्ट के जाल, सिम-स्वैप—ये आम तरकीबें हैं। अपने फोन में स्क्रीन-शेयरिंग ऐप से दूर रहें, किसी अनजान लिंक से KYC अपडेट न करें, कलेक्ट रिक्वेस्ट में हमेशा “From” और “To” देखकर ही पिन डालें, और गलत ट्रांजैक्शन पर 1930 हेल्पलाइन या बैंक/एप के इन-ऐप ग्रिवांस चैनल पर तुरंत शिकायत करें। देरी बढ़ेगी तो रिकवरी मुश्किल होती जाती है।
डेटा प्राइवेसी और जिम्मेदार लेंडिंग भी केंद्र में हैं। डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन कानून ने सहमति और डेटा संकलन की सीमाएं तय कीं, जबकि RBI की डिजिटल लेंडिंग गाइडलाइंस ने ऐप्स को पारदर्शी फीस, उचित रिकवरी प्रैक्टिस और सीधे बैंक खाते में डिस्बर्सल का पालन कराया। इससे यूज़र भरोसा बढ़ता है और सिस्टम मजबूत होता है।
सरकार और नियामक छोटे भुगतान को और सुरक्षित बनाने पर काम कर रहे हैं—फ्रॉड मॉनिटरिंग, रिवर्सल के मानकीकृत नियम, और लो-वैल्यू ट्रांजैक्शन के लिए स्मार्ट फ्रिक्शन जैसे प्रयोग जारी हैं। CBDC यानी डिजिटल रुपया का रिटेल पायलट भी UPI की इंटरऑपरेबिलिटी के साथ टेस्ट हो रहा है, ताकि ज़रूरत पड़ने पर ऑफलाइन/लो-कनेक्टिविटी माहौल में भी भुगतान संभव रहे।
भूमिगत ढांचे की बात करें तो साउंडबॉक्स अब कॉफी स्टॉल से लेकर मंडी तक पहुँच चुके हैं। उनकी कीमतें नीचे आई हैं और हिंदी, अंग्रेज़ी, क्षेत्रीय भाषाओं में वॉइस कंफ़र्मेशन से व्यापारी को भरोसा मिलता है कि पैसा आया। अगले चरण में यही डिवाइस सेटलमेंट, इन्वेंटरी नोट्स और GST मिलान जैसी सेवाओं का हब बन सकते हैं।
ग्राहकों के लिए अगले 12 महीनों की तस्वीर साफ है—टैप-टू-पे और माइक्रोपेमेंट तेज होंगे, ट्रांजिट और टोल में UPI की हिस्सेदारी बढ़ेगी, और चुनिंदा देशों में भारतीय QR की स्वीकार्यता और फैलेगी। व्यापारियों के लिए असली फर्क वही होगा जो बैक-ऑफिस का सिरदर्द कम करे—रिफंड का ऑटो-ट्रैक, ऑन-डिमांड सेटलमेंट और फाइनेंसिंग तक आसान पहुंच।
और हां, बहस MDR की लौटेगी। सवाल वही—अडॉप्शन की रफ्तार बनाए रखने के लिए कितनी सब्सिडी ठीक, और सर्विस क्वालिटी बनाए रखने के लिए कितनी फीस जरूरी। समाधान शायद सेगमेंटेड होगा—छोटे टिकट पर कम, बड़े पर थोड़ा ज्यादा, और वैल्यू-एडेड सेवाओं के लिए स्पष्ट, पारदर्शी शुल्क।

आगे क्या: नियम, सुरक्षा और बिज़नेस मॉडल
2025 का फोकस तीन चीज़ों पर टिकेगा—सुरक्षा, छोटे व्यापारियों के लिए टिकाऊ बिज़नेस मॉडल, और सीमा पार भुगतान। सुरक्षा में ‘डिफेंस-इन-डेप्थ’ आएगा: डिवाइस बाइंडिंग, बिहेवियरल एनालिटिक्स, और रियल-टाइम रिस्क-बेस्ड ऑथेंटिकेशन। व्यापारी पक्ष में इकोसिस्टम फीस का एक साफ ढांचा और सेटलमेंट की गति पर प्रतिस्पर्धा दिखेगी।
क्रेडिट ऑन UPI का असली स्केल अब दिख सकता है—मिनी-क्रेडिट लाइन, बिल-टू-EMI, और इनवॉइस-आधारित वर्किंग कैपिटल। इससे कार्ड स्वीकार्यता के बिना भी क्रेडिट-एट-QR संभव होगा। शर्त बस यही कि रिस्क प्राइसिंग पारदर्शी रहे और रिकवरी प्रैक्टिस ग्राहक-हितैषी।
क्रॉस-बॉर्डर में ट्रैवल कॉरिडोर पहले आएंगे—टूरिस्ट हॉटस्पॉट, एयरपोर्ट, रिटेल चेन—जहां भारतीय QR स्वीकार हो या भारतीय ऐप विदेशी नेटवर्क से जुड़े हों। रेमिटेंस में भी फीस और सेटलमेंट टाइम घटाने की होड़ बढ़ेगी, जिससे छोटे ट्रांसफर किफायती बनें।
अगर आप उपभोक्ता हैं, तो तीन काम आदत बनाइए: कलेक्ट रिक्वेस्ट को पढ़े बिना पिन न डालें, KYC/सपोर्ट के नाम पर स्क्रीन-शेयरिंग न करें, और कोई गड़बड़ी दिखे तो 24 घंटे के अंदर बैंक और 1930 पर शिकायत दर्ज कर दें। और अगर आप व्यापारी हैं, तो पेमेंट पार्टनर चुनते वक्त सिर्फ “फीस” मत देखिए—सेटलमेंट समय, सपोर्ट की क्वालिटी, और रीकंसिलिएशन टूल्स असली फर्क बनाते हैं।
डिजिटल पेमेंट्स की यह दौड़ अब गति से ज्यादा स्थायित्व की परीक्षा है। भरोसा, सुरक्षा और टिकाऊ राजस्व—तीनों का संतुलन ही अगले दौर के विजेताओं को तय करेगा। भारत के पास स्केल है, आदत बन चुकी है, और टेक स्टैक तैयार है। अब बारी है इसे और सुरक्षित, निष्पक्ष और टिकाऊ बनाने की।
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