रायपुर | रिपोर्ट: निक्की
हजारों घरों में सितंबर का बिजली बिल देखते ही माथा ठनका—जहां पहले 700-800 रुपये आते थे, वहीं अब 1,500 से 2,000 रुपये तक। वजह साफ है: 1 अगस्त 2025 से हाफ बिजली बिल योजना बंद। छह साल से ज्यादा समय तक चली इस राहत ने परिवारों के बजट को संभाले रखा था। अब अचानक बढ़े चार्जेस और PPC (पावर परचेज कॉस्ट) शुल्क ने लोगों की जेब पर सीधी चोट की है। कई पाठकों ने बताया कि उनका छत्तीसगढ़ बिजली बिल अचानक दोगुना-तिगुना हो गया है।
क्या बदला और क्यों
पुरानी व्यवस्था में 400 यूनिट तक खपत वालों को बिल का आधा देना पड़ता था। इससे मध्यमवर्गीय घर—फ्रिज, कूलर/एसी, गीजर और दो-तीन पंखों वाले 2BHK—भी किसी तरह बजट में आ जाते थे। नई व्यवस्था में छूट 100 यूनिट तक सीमित कर दी गई है। यानी जिन परिवारों की औसत खपत 150-350 यूनिट रहती है, वे सीधे सामान्य दरों और करों के दायरे में आ गए हैं।
PPC या पावर परचेज एडजस्टमेंट वही वेरिएबल हिस्सा है जो डिस्कॉम ईंधन, कोयला परिवहन, और थोक बिजली खरीद की बढ़ी लागत के हिसाब से समय-समय पर जोड़ते हैं। इसे अलग लाइन-आइटम में दिखाया जाता है। कई राज्यों में इसे FCA या FPPCA भी कहते हैं। आम भाषा में समझें तो यह वह पास-थ्रू चार्ज है, जो उत्पादन और खरीद लागत बढ़ने पर बिल में जुड़ जाता है।
सरकार का तर्क है कि व्यापक सब्सिडी से डिस्कॉम की सेहत बिगड़ती है और घाटा बढ़ता है। लक्ष्य-आधारित छूट, यानी 100 यूनिट तक, गरीब और अल्प-उपभोक्ता परिवारों पर केंद्रित है। साथ ही, लंबे समय में खपत घटाने और स्व-उत्पादन (रूफटॉप सोलर) को बढ़ावा देने की नीति अपनाई जा रही है। विभागीय अफसरों का कहना है कि रेगुलेटरी नियमों के तहत PPC जैसे समायोजन सामान्य हैं और इन्हें राज्य विद्युत नियामक आयोग की मंजूरी से लागू किया जाता है।
यहां एक विडंबना जरूर खटकती है—छत्तीसगढ़ पावर सरप्लस कहे जाने वाले राज्यों में गिना जाता है, कोयला और पानी राज्य में ही है, फिर भी उपभोक्ताओं पर बिल का बोझ क्यों? ऊर्जा अर्थशास्त्र का सीधा जवाब है: उत्पादन क्षमता और थोक आपूर्ति के बावजूद, अंतिम उपभोक्ता टैरिफ तय करने में ट्रांसमिशन-डिस्ट्रिब्यूशन लॉस, कोयला-परिवहन लागत, रेगुलेटरी सरचार्ज और सब्सिडी का संतुलन निर्णायक होता है। यानी संसाधन होना और अंतिम बिल सस्ता होना—दो अलग बातें हैं।
व्यवहार में इसका असर कैसा दिख रहा है? जिन घरों की खपत 250-400 यूनिट के बीच है, उनकी जेब सबसे ज्यादा कटी है। पुराने स्लैब में आधे-आधे बिल का फायदा बहुत मायने रखता था। अब वही परिवार स्टैंडर्ड स्लैब-रेट, फिक्स्ड चार्ज, मीटर रेंट, ड्यूटी और PPC जोड़कर पूरी रकम दे रहे हैं।

जनता पर असर, राजनीति और आगे का रास्ता
शहरों में 2BHK-3BHK परिवार, छोटे दुकानदार, कोचिंग/ट्यूशन सेंटर, हॉस्टल और किराये के मकानों में रहने वाले स्टूडेंट्स—सब इस बदलाव की सीधी मार बता रहे हैं। गांवों में जिन घरों में दो पंखे, कुछ एलईडी, एक फ्रिज और मोटर-पंप (घरेलू) है, वे भी अब 100 यूनिट से ऊपर जा रहे हैं। खेती-किसानी के लिए अलग मीटर और टैरिफ वाले उपभोक्ताओं की कहानी अलग है, पर घरेलू खपत वालों का बिल अगस्त के बाद अचानक उछला है।
मध्यम वर्ग की तकलीफ इसलिए बढ़ी है क्योंकि यह वर्ग सब्सिडी-लाभ की नई रेखा के ठीक बाहर खड़ा है। जिन्हें पहले 400 यूनिट तक आधा बिल मिलता था, वे अब ‘न क्वालीफाई, न अफोर्ड’ के बीच फंस गए हैं। महंगाई पहले से दबाव बना रही है—किराया, स्कूल फीस, सिलिंडर, किराना—और अब बिजली बिल ने मासिक बजट को बिगाड़ दिया है।
विपक्ष ने इसे चुनावी वादों से पलटी कही है और मूल योजना बहाल करने की मांग तेज कर दी है। विपक्षी नेताओं का आरोप है कि जिन परिवारों ने अपनी मासिक वित्तीय योजना उसी आधार पर बनाई थी, उन्हें बिना ट्रांजिशन प्लान सीधे उच्च बिल थमा देना ‘अन्याय’ है। कई जगह उपभोक्ता समूह प्रदर्शन की तैयारी कर रहे हैं—योजना बहाली, PPC शुल्क की समीक्षा और तात्कालिक राहत की मांग के साथ।
बिजली कंपनियां दूसरी तरफ PM सूर्या घर मुफ्त बिजली योजना का प्रचार कर रही हैं। उनका कहना है—रूफटॉप सोलर लगाइए, नेट-मीटरिंग कराइए और 200-300 यूनिट तक के बिल की चिंता मिटाइए। कागज पर यह आकर्षक है, पर जमीन पर कुछ बाधाएं हैं—छत का आकार, धूप की उपलब्धता, प्रारंभिक निवेश, नेट-मीटरिंग की स्वीकृति में देरी, और मेंटेनेंस की समझ।
केंद्रीय योजना के तहत रूफटॉप सोलर पर पर्याप्त सब्सिडी मिलती है—छोटे सिस्टम (जैसे 2-3 किलोवॉट) के लिए अच्छी-खासी सहायता, जिससे निवेश का बोझ कम हो जाता है। औसतन 1 किलोवॉट सिस्टम एक दिन में 3-4 यूनिट तक बिजली बना सकता है (मौसम पर निर्भर)। यानी 2-3 किलोवॉट सिस्टम कई घरों की बेसिक जरूरत निकाल सकता है। पर ध्यान रहे—‘मुफ्त बिजली’ का मतलब यह नहीं कि कुछ भी खर्च नहीं होगा; मीटरिंग, रखरखाव और सिस्टम कुशलता के हिसाब से नेट बिल घटता है, शून्य होना हर महीने संभव नहीं होता।
गांवों में जागरूकता शिविर चल रहे हैं—डिस्कॉम टीमें, पंचायत स्तर पर प्रदर्शन, बैंक-लोन और सब्सिडी की प्रक्रिया समझाई जा रही है। फिर भी ग्रामीण उपभोक्ता का पहला सवाल यही है—“इस महीने का बिल कैसे कम होगा?” सोलर का फायदा दीर्घकाल में है; तात्कालिक राहत के लिए या तो स्लैब-रेट में नरमी चाहिए या PPC में अंतरिम राहत।
तो उपभोक्ता अभी क्या करें? बिल को लाइन-बाय-लाइन पढ़ें। कई बार मीटर-रीडिंग की तारीख बढ़ने से बिलिंग साइकिल 30 की जगह 33-35 दिन की हो जाती है—खपत बढ़ी दिखती है और ऊंचे स्लैब में चली जाती है। अगर रीडिंग एरर, मल्टीप्लायर फैक्टर में गलती, या औसत आधार पर ज्यादा यूनिट दिखे हों, तो तुरंत सेक्शन ऑफिस में आपत्ति दर्ज कराएं।
बिल के घटकों को समझें:
- फिक्स्ड चार्ज: कनेक्शन/लोड के हिसाब से तय, खपत से अलग।
- ऊर्जा शुल्क (प्रति यूनिट दर): स्लैब के अनुसार बदलता है।
- ड्यूटी/सेस: राज्य सरकार द्वारा तय कर/सेस।
- PPC/FCA: ईंधन और खरीद लागत का समायोजन, समय-समय पर बदलता है।
खपत प्रबंधन के आसान तरीके—जो तुरंत असर दिखाते हैं:
- फ्रिज-एसी की तापमान सेटिंग 1-2 डिग्री ऊपर रखें; यह खपत में तेज कटौती करता है।
- पुराने पंखे/कूलर मोटर को सर्विस करें; ढीली बेल्ट या खराब बियरिंग अनावश्यक यूनिट खा जाते हैं।
- वाटर-पंप को टाइमर पर चलाएं; ओवरफ्लो सबसे बड़ा ‘छुपा’ खर्च है।
- ऊर्जा-कुशल एलईडी और 5-स्टार उपकरणों पर शिफ्ट करें; बड़े उपकरणों की रन-टाइम लॉग रखें।
- बड़े लोड (इस्त्री, वॉशिंग मशीन) को क्लब करके सीमित समय में चलाएं; लगातार ऑन-ऑफ से स्टार्ट-अप लोड बढ़ता है।
अगर शिकायत का हल स्थानीय दफ्तर में नहीं मिलता, तो उपभोक्ता मंच/ग्रिवांस फोरम और फिर बिजली लोकपाल तक जाने का अधिकार है। लिखित आवेदन, फोटो वाली मीटर-रीडिंग, पिछले बिलों की प्रतियां और रसीदें साथ रखें। अधिकांश मामलों में स्पष्ट डॉक्यूमेंटेशन से फीस/चार्जेस की समीक्षा आसान हो जाती है।
नीति मोर्चे पर आगे क्या? तीन बातें देखने लायक हैं।
- क्या सरकार 100 यूनिट छूट की सीमा बढ़ाने या PPC में अस्थायी राहत देने पर विचार करेगी—कम से कम त्योहारी महीनों के लिए?
- क्या नियामक अगली टैरिफ-ऑर्डर समीक्षा में स्लैब संरचना को समतल करेगा, ताकि मिड-यूज़र्स पर अचानक छलांग वाला असर कम हो?
- क्या रूफटॉप सोलर की नेट-मीटरिंग मंजूरियों और सब्सिडी-रिलीज की प्रक्रिया सरल और समयबद्ध होगी, जिससे शहरों और कस्बों में तेज अपनाने का रास्ता खुले?
यह भी तय है कि विरोध-प्रदर्शन का दबाव बढ़ेगा। विपक्ष इसका सियासीरण करेगा और सरकार वित्तीय अनुशासन की दलील देगी। दोनों के बीच फंसा उपभोक्ता फिलहाल अपनी खपत घटाने, बिल की बारीकियां समझने और जहां संभव हो वहां सोलर या ऊर्जा-कुशल विकल्प अपनाने की कोशिश करेगा।
सवाल वही है—राहत और वित्तीय मजबूती के बीच संतुलन कैसे बने? हाफ बिल जैसी व्यापक राहतें लोकप्रिय होती हैं, पर टिकाऊ नहीं दिखतीं। टारगेटेड सब्सिडी और दीर्घकालीन समाधान (जैसे रूफटॉप सोलर, स्मार्ट मीटरिंग, तकनीकी हानि में कटौती) तभी असर दिखाएंगे जब संक्रमण-काल में लोगों को सांस लेने लायक कुशन मिले।
फिलहाल संकेत यही हैं: अगले कुछ बिल चुभने वाले होंगे। अगर आप 150-350 यूनिट की रेंज में हैं, तो छोटी-छोटी बचतें भी जोड़कर फर्क डालें। और अगर बिल में कोई विसंगति दिखे, तो चुप न रहें—नियम और फोरम आपके साथ हैं, बशर्ते कागज दुरुस्त हों। नीति-निर्माता भी इसी फीडबैक से सुनेंगे कि कहां ढील जरूरी है और कहां कठोरता।
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